मन की सतह पर जीत का परचम

मन की सतह पर जीत का परचम 
आदिमानव सी पड़ी मन की सुषुप्त 
अनुभूतियों की तरलता पे प्रस्फुटित होते है
अटपटे से खयाल नव सर्जन की आस लिए..!

कहकहे लगाते उतरता है एक साया जैसे किसी 
अज्ञात उपग्रह पे रखता है कोई पहला कदम,
दिल के भूखंड में विभाजित होते है नये पुराने उन्माद..!

भीतर बहुत ही भीतर धमासान में 
पुराने खड़े होते है लाठी, मशाल की धौंस पर,
ओर टकराते है नये उन्माद की कदमपोशी को रोकने..!

नया है ज्वालामुखी सा 
धधकता आंतरिक अपेक्षाओं का शोला,
कदम जमाएँ खड़ा है पुरानों को तोड़ता..!

मशाल की रोशनी हौले हौले मंद होते 
जैसे खिसक रहे हो महाद्विप धरातल होते,
द्वंद्व की क्षितिज पर खड़े नये पुराने खयालात की 
अवधारणाएं ढूँढती है तोड़ अपने तरीके से निकालती..!

देखते है मन की सतह पर जीत का परचम कौन रचता है..!

अगाध आसमान सी मन के उपग्रह की पृष्ठभूमि 
पर प्राणवायु को पंख में लिए नये का उद्गम होता है,
या पुरानों की हस्ती कायम करती है 
अपना मकाँ जड़ता की लाठी मशाल के दम पे॥
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   भावना जीतेन्द्र ठाकर
    बेंगलुरु  - कर्नाटक 

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