नारी बंधा हुआ पक्षी

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नारी-----बंधा हुआ पक्षी।
डोर बंधी है अब भी पिंजरे में,
उड़ना चाहा तो मर जाऊँगी।
गर्दन में फास रखी, पानी 
को देखूंगी तो भी डर जाऊँगी।
दे दी चोखट से आजादी,
पर सोच में कैसी अकड़न है।
दो कदम जो बाहर को जाऊ,
आ जाती मन मे जकड़न है।
संघर्ष मेरा अपनो से, दुनिया से
तो कब की जीत चुकी हूं।। 
हुकूमत करना आसान है,पर
पर ममता पर ही आ रुकी हूं।
कैसी जन्नत देते हो, जिसमे 
स्वाभिमान की स्वास नही है।
मेरा इच्छा को पूरा करना,
क्यों तेरे मन की फास रही है।
भृकुटि क्यों तन जाती है,
जब जब कुछ पा जाती हूं।
क्या तुझको अंदाज है,
क्या क्या में सहजाती हूं।
सफलता पाऊ तो,पल में
चरित्र के टुकड़े कर देते हो।
क्यो मेरे आँचल में अपने,
कुकर्मों के दाग भर देते हो।
क्या समझा हैं तुमनें,
मैं आँखों की जलन मिटाती नीर हूं।
तुझको नही मालूम ए कायर,
मैं शक्ति , भक्ति और कितनी धीर हूं।
नारी हूं, आकर नही, उपभोग नही,
ना तेरा कोई मन मे चोर नही।
बंधी हुई बस मोह मैं पर उड़ सकती हूं,
बस करती बेमतलब शोर नही।

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     भावना पालीवाल
      पचौरी , इंडिया 

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