कौन गुनहगार हैं,किसकी जिम्मेदारी थी। जब सबको एक होकर ऐसी घटना का समाधान,सहानुभूति,सहयोग में इकट्ठा होना चाहिए,तब भी आरोप पर आरोप,बेहयाई की राजनीति।गोरखपुर जैसी हजारों घटनाएं उदाहरण हैं हमारे असलियत का ।हम जो करते हैं ,सोंचते हैं ,उसके बारे में अगर पहले ही मिलकर सही विचार विमर्श करले तो शायद ए सब ना सुनने देखने को मिले ।हम खुद इस तरह के असहनीय घटनाओं को बढ़ावा देते हैं। ए सरकार वो सरकार ,ईमानदार बेईमान बेतुकी बकवास सब झेल जाने के बाद ! हमेशा ए कहकर, सोचकर मुकर जाना-
*इसमे मेरा क्या नुकसान..
*मेरा क्या लेना देना..
*कौन फजीहत में पड़े..
*जिसका हैं वो जाने..
*भाड़ में जाए सब..
*मेरी कोई गलती नही..
सही बात हैं क्या करना कोई सरकारी कार्यालय या अफसर घोटाला करें ,रिश्वतखोर हो ,सरकार का चमचागीरी करें तब तक नहीं बोलना जब तब बात अपने पर ना आ जाए।खुद का दर्द होता हैं तब छटपटाहट पता चलता हैं,नहीं तो नजरअंदाज हम कर ही देते हैं।
अक्सर मैने देखा हैं अपने गांव ,मोहल्ले में क्या होता हैं।ऐसे बहुत से गांव, कस्बों सरकारी अस्पताल हैं ,जहां गरीब गुरबा का यही बचा खुचा आसरा हैं। वहां मेडिकल की अन्य सुविधाएं तो क्या जरुरत के छोटे मोटे चीजें, वक्त पर काम आने वाली दवाइयां, इंजेक्शन मौके पर उपलब्ध नहीं मिलता। सबको पता हैं पर" कौन हाथी मारे कौन दात उखाड़े" चल रहा हैं चलने दो ।मरीज को मरते समय बाहर की महंगी दवाइयां अन्य जरुरत पर्चा छाप कर पकडा़ देते हैं।अब सारा तोह मरते मरीज पर इतना सबकुछ खुद ही निपटना हैं रुपया पैसा के इंतजाम से दवा खरीदने तक ।बड़े आसानी सै हा हा कर देते हैं सह लेते हैं, डर भी हैं डाक्टर बाबू कही खिसिया के उल्टा पुल्टा कर दिए तो बंटाधार होना तय हैं फिर तो ।यही हेर फेर बना हुआ हैं, हमें आदत भी इसी की लग चुकी हैं।दोहरा दोहरा कर ऐसी घटनाएं झकझोर कर जगाती तो हैं फिर बीत बीता के भूल भटक जाते हैं।
बात सिर्फ आज का नहीं हमेशा का हैं ,और इन सभी पीड़ा से छुटकारा तभी मिलेगा जब हम जागरूक बने और जागरुकता दिखाएं अपने लिए ही नहीं औरो के लिए भी आवाज उठाएं ।
.........
लेखक : मंगलज्योति
Hospitals conditions inindia |
*मेरा क्या लेना देना..
*कौन फजीहत में पड़े..
*जिसका हैं वो जाने..
*भाड़ में जाए सब..
*मेरी कोई गलती नही..
सही बात हैं क्या करना कोई सरकारी कार्यालय या अफसर घोटाला करें ,रिश्वतखोर हो ,सरकार का चमचागीरी करें तब तक नहीं बोलना जब तब बात अपने पर ना आ जाए।खुद का दर्द होता हैं तब छटपटाहट पता चलता हैं,नहीं तो नजरअंदाज हम कर ही देते हैं।
अक्सर मैने देखा हैं अपने गांव ,मोहल्ले में क्या होता हैं।ऐसे बहुत से गांव, कस्बों सरकारी अस्पताल हैं ,जहां गरीब गुरबा का यही बचा खुचा आसरा हैं। वहां मेडिकल की अन्य सुविधाएं तो क्या जरुरत के छोटे मोटे चीजें, वक्त पर काम आने वाली दवाइयां, इंजेक्शन मौके पर उपलब्ध नहीं मिलता। सबको पता हैं पर" कौन हाथी मारे कौन दात उखाड़े" चल रहा हैं चलने दो ।मरीज को मरते समय बाहर की महंगी दवाइयां अन्य जरुरत पर्चा छाप कर पकडा़ देते हैं।अब सारा तोह मरते मरीज पर इतना सबकुछ खुद ही निपटना हैं रुपया पैसा के इंतजाम से दवा खरीदने तक ।बड़े आसानी सै हा हा कर देते हैं सह लेते हैं, डर भी हैं डाक्टर बाबू कही खिसिया के उल्टा पुल्टा कर दिए तो बंटाधार होना तय हैं फिर तो ।यही हेर फेर बना हुआ हैं, हमें आदत भी इसी की लग चुकी हैं।दोहरा दोहरा कर ऐसी घटनाएं झकझोर कर जगाती तो हैं फिर बीत बीता के भूल भटक जाते हैं।
बात सिर्फ आज का नहीं हमेशा का हैं ,और इन सभी पीड़ा से छुटकारा तभी मिलेगा जब हम जागरूक बने और जागरुकता दिखाएं अपने लिए ही नहीं औरो के लिए भी आवाज उठाएं ।
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लेखक : मंगलज्योति