बनारस का महाश्मशान.....

जन्म और मृत्यु इस जगत के अकाट्य सत्य हैं जो एक न एक दिन सबके साथ घटित होता है। अमीर-गरीब, छोटा- बड़ा, लंबा-नाटा, सुंदर-कुरूप, प्रसिद्ध-गुमनाम यहां सब एक समान हैं। आदमी ख़ाली हाथ आता है और ख़ाली हाथ ही जाता है। अब वो स्वर्ग में जाता है, नर्क में जाता है या इसी धरती पर भटकता है इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है और आस्था की बात क्या करना वो तो जन्मजात अंधी होती है। बाकी जीवन और मृत्यु के बीच का वक्त इस धरती पर अच्छे-बुरे, अर्थवान या फालतू के काम करते हुए व्यतीत करता है। कुछ अपने जीवन को अपने कर्मों से सार्थकता प्रदान करते हैं तो कुछ निरर्थक ही समय काटकर चल देते हैं। कुछ के लिए अपनी सुख सुविधा का जुगाड़ ही जीवन का अर्थ होता है तो कुछ दुनियां जैसी भी है उसे और सुंदर और मानवीय मनाने में ही अपने जीवन की सार्थकता देखते हैं। कवि मुक्तिबोध कहते हैं - 
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन 
अब तक क्या किया 
जीवन क्या जिया ?
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तो बात तत्काल बनारस की जो कला, साहित्य, सिनेमा, धर्म आदि के केंद्र में पता नहीं कब से विद्दमान है। ना जाने कितने लेखकों, कलाकारों, विद्वानों और मूर्खों को पाला है इसने। आधुनिक से लेकर पौराणिक ग्रंथ बनारस के किस्सों-कहानियों से भरे पड़े हैं। शिव की नगरी है तो औघड़ता इसके मिजाज़ में विद्दमान है। इस औघड़पने पर बात फिर कभी तत्काल बात यह कि बनारस घाटों का भी नगर है। यहां कुल मिलाकर 84 घाट हैं। ये घाट लगभग 4 मील लम्‍बे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पाँच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्‍हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट,(इस घाट का एक कमाल रूप काशीनाथ सिंह "काशी का अस्सी" में करते हैं) दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में। हर घाट की सत्य और काल्पनिक अपनी अलग-अलग कहानी है। लेकिन वर्तमान में बात मणिकर्णिका घाट की। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग का नाम डॉ. तुलसीराम मणिकर्णिका रखते हैं। इस किताब में डॉ. तुलसीराम लिखते हैं - "एक हिन्दू मान्यता के अनुसार जिस किसी का अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया जाता है, वह सीधे स्वर्ग चला जाता है। इस घाट पर सदियों से जलती चिताएं कभी नहीं बुझी। अतः मृत्यु का कारोबार यहां चौबीसों घंटे चलता रहता है। सही अर्थों में मृत्यु बनारस का बहुत बड़ा उद्योग है। अनगिनत पंडों की जीविका मृत्यु पर आधारित रहती है। सबसे ज़्यादा कमाई उस डोम परिवार की होती है, जिससे हर मुर्दा मालिक चिता सजाने के लिए लकड़ी खरीदता है। यह डोम परिवार इस पौराणिक कथा का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसमें उसके पूर्वजों के हाथों कभी राजा हरिश्चन्द्र बिक गए थे। डोम के ग़ुलाम के रूप में राजा हरिश्चन्द्र की नियुक्ति मुर्दाघाट की रखवाली के लिए की गई थी। एक घाट आज हरिश्चन्द्र घाट के रूप में भी जाना जाता है। इसी मान्यता के कारण लोगों का विश्वास है कि जब तक उस डोम परिवार द्वारा दी गई लकड़ी से चिता नहीं सजाई जाएगी, तब तक स्वर्ग नहीं मिलेगा।" 

बहरहाल, स्वर्ग-नर्क का यह अंधविश्वासी खेल बहुत पुराना है जिसने अब हर चीज़ को एक कारोबार में बदल दिया है। बहरहाल, यह घाट वाराणसी में गंगानदी के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। एक मान्यता के अनुसार माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहाँ एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूढने का काम भगवान शंकर जी द्वारा किया गया, जिस कारण इस स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ गया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान शंकर जी द्वारा माता पार्वती जी के पार्थीव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया, जिस कारण इसे महाश्मसान भी कहते हैं।
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इस घाट से जुड़ी दो किम्वदंतियाँ हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी।
दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है? प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है। निश्चित ही कुछ और किवदंतियां होंगी। बहरहाल, इस घाट पर बहुत कुछ एक साथ घटित होता रहता है। वहां बिना काम के चैन से बैठिए और मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह फ़क़ीरों का वेश बनाकर तमाशा देखिए। 
बनाकर फ़क़ीरों का हम वेश ग़ालिब 
तमाशा ए अहले करम देखते हैं। 
क्या धर्म या क्या अधर्म। क्या पाप क्या पूण्य। सबका घालमेल है यह जीवन। वैसे भी जीवन किताबों में वर्णित धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य से परे है। जीवन का सच कभी किताबी हो ही नहीं सकता। तो निःस्वार्थ भाव से चलते हुए तमाशा देखिए दुनियां श्वेत और श्याम नहीं बल्कि ग्रे है। तो अभी के लिए तत्काल बस इतना कि काया का क्यों रे गुमान काया तोरी माटी की !
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Punj Prakash
Bihar

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