एक दिया आंधियों में जला कर देखूं



एक दिया आंधियों में जला कर देखूं 
एक दिया आंधियों में जला कर देखूं 
जानता हूँ बुझेगा फिर भी सुलगा कर देखूं।।

मालूम है मुझे तूफ़ां आने वाला हैं 
चलो सागर में किश्ती चला कर देखूं।।

आंधियां इस ओर आती है तो आने दो 
आंधियो से नजरें दो चार कर देखूं।।

जलजले जब तक न जल जाए हौंसलों से 
तब तलक जलजलों से जान लड़ा कर देखूं।।

सुना हैं ईश्क़ जान ले लेता है अक्सर 
मैं भी इश्क मे खुद को न्यौछावर कर देखूं।।

मालूम है वो ईश्क़ की हामी ना भरेंगें 
कदमो में फिर भी अर्जी एक लगा कर देखूं।।

ओर देखना क्या है बस उन्हें देखना है 
उन्हें देख देख कर देख कर देखूँ।।

ईश्क़ किसे कहते है मुझे क्या मालूम 
उन्हें पाने में खुद को भुला कर देखूं।।

मैं क्या मेरी हस्ती क्या जो मिटा दे कोई 
मैं खुद को हरवक्त महफूज उसके साये में देखूं।।

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कवि प्रदीप सुमनाक्षर
  दिल्ली,इंडिया 


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