सरकारी संस्थानों की अब इज्जत कहीं न कहीं कम हुई है

सरकारी संस्थानों की अब इज्जत कहीं न कहीं कम हुई है
      इन दिनों मैं सरकारी स्कूल से थोड़े समय के लिए जुड़ा हुआ हूँ । इसे बहुत करीब से देख रहा हूँ ,इतना ज्यादा करीब हूँ की इसके दीवाल पर प्रत्येक कील के द्वारा छोड़ा हरेक छेद में बैठा काला ठिगना कीड़ा भी दिख रहा है जो मकड़ी के झोल के आड़ में छुपा हुआ है । इसके पक्के फर्श पर बने उन सैकड़ो बेकाम गढो को मैं स्पष्ट देख पा रहा हूँ ।देख रहा हूँ ,की कैसे मालदार सिस्टम के रूपियापति रखैलों के गॉल्फ़ की गेंद तक गटक जाने वाले उन गढों में नन्हे कर्मठ हांथो की उंगलियों को अंटा पिलाते हुए, ह्हाते हुए उनके स्वरों को भी बैठा सुन हीं रहा हूँ ।एइसे हीं अनाम खेलों जिन्हें खेल का दर्जा भी प्राप्त नहीं है उस खेल में पिसती नन्हीं आँखों की बेबसी को भी गहराई से देख रहा हूँ । कैसे स्कूल हैं हमारे की जहां ढंग के खेल की व्यवस्था नहीं है? क्या हम खेल का भी एक वातावरण नहीं बना सकते ? हम फ़र्जी डिग्री बाँटने में मसगुल हैं जिसका उपयोग सिर्फ विटनोन रख के भूंजा फाँकने में ही है ।

    टूटी पक्की छतों के छेदों से आती उन आशावादी तिरछी किरणों के उजालों को भी महसूस कर रहा हूँ जो नेताओं के तलबे चाट के बने ठेकेदार के काली कर्मों के किरणों को बाहर कर ज्ञानपुंज बना हुआ है । इन्हीं ज्ञान पुंजों से ज्ञान मिला की " धन ऊपर से आते है .. लेकिन स्कूल के छत्त तो काले कौओं ने कब्ज़ा कर रखा है अब धन को सीधे कक्षा में पहुँचाने के लिए तो छत का टुटा होना भी लाजमी है ।
वातावरण अच्छा है बस खिड़कियां खड़क रहीं होती हैं , सांकल(चिटकिलि) हीं नहीं है उन्हें (नन्हों) को शायद इसकी परवाह नहीं है वे मग्न रहते है । उन्हें सांकल की क्यों परवाह हो ? शायद उनके घरों में किवाड़ हीं न हों ।
यही तो बिहारी स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर है ।

     किसी भी स्कूल के कर्मअंग उनके शिक्षक होते हैं यदि इन्ही कर्म अंगो में मतभेद हो तो किसी भी संस्थान के लिए मुश्किल होगी । यहाँ एक हीं काम करने बाले लोगों के वेतन में अंतर होने से स्कूलों में शीतयुद्ध की स्थिति होती है । शिक्षक के मन के इस अंतर्कलह को किसे झेलना पड़ता है ? क्या इससे उदान घरों के इन नन्हें सिपाहियों पर असर नहीं होता होगा ? हर रोज अंतर्मन के विरोध को झेल झेल कितने सबल हो पायेंगें ये ? क्या वे नन्हें कभी एक किवाड़ और सांकल के बीच सामंजस्य को समझ पाएंगे।
मैं ट्रेनी शिक्षक के रूप में जब दाखिल हुआ ,मेरी आँखें यैसा नहीं है की पहली बार सरकारी स्कूल देख रही थी ।नाना जी का सानिध्य मुझे मिला है जो एक पूर्व शिक्षक हैं उनके साथ साईकिल चढ़ जीवन में कई बार नन्ही आँखों से मैंने सरकारी स्कूलों को नजदीक से देखा है।

    यैसा भी नहीं है की पहले सब कुछ ठीक था , पहले भी मुश्किले थी लेकिन आज की मुश्किले गहरी है । चिंताजनक है । पथरीली बिल्डिंग उस काल में भले न हों , लोहे के किवाड़ भले न हों ,लेकिन उस काल में संस्थानों , शिक्षकों और उनसे जुड़े लोगों की बड़ी इज्जत थी । जितने में आज कान्वेंट स्कूल बने होते हैं ,उतनी जमीन तो कई दान में दे दिया करते थे और उनके नाम बड़े अक्षरों में समाज में लिखा जाता था । वे तब सोचें होंगे की हमारी पीठी दर पीठी को इसका फायदा मिलेगा और यही उनका मुआवजा होता था । इसी मुआवज़े से मोछ ऊपर कर के चल लेते थे ।

     बड़ी बेइज्जती है की आज हॉस्पिटल , स्कूल ,कॉलेज खोलने के लिए हमे जमीन का अधिग्रहण करना पड़ रहा है, छिनना पड़ रहा है , पैसे देने के बाबजूद लोग जमीन देने को तैयार नहीं है । इसका सिर्फ एक ही कारण है की सरकारी संस्थानों की अब इज्जत कहीं न कहीं कम हुई है ।
इसका यह प्रभाव है की लोग नर पिचासों ( प्राइवेट संस्थानों ) से अपना खून चूसबा रहें हैं । पान ,खैनी गुटखा बेचने भर जगह में "शैक्षिक गुमटी" भी अपना कारोबार कर रही है । यैसी भौकाल है की गुमटी से आई आई टीअन निकल रहें , आई आई टीअन .....सब गुमटी से हीं निकल रहें है तो कॉलेज को भी गुमटी में हीं मिला के एक स्टार्टअप शुरू करना चाहिए ।

    कौन कहता है की दुनियां बड़ी हो रही है ? झूट बोलता है ...दुनिया गुमटी भर में सिमट गयी है । डॉक्टर अपनी गुमटी में मिलेंगे , मास्टर अपनी गुमटी में मिलेंगे , वकील अपनी गुमटी में मिलेंगे ...... दुनिया कर लो गुमटी में !

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    Anant Prakash
   Jehanabad, India



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