क्यों मानवता इतनी मरती

क्यों मानवता इतनी मरती
तरुण देंह को दनुज नोचते !
सभ्य हुआ मानव कितना रे ?
अपनी बेटी बचपन उसका !
कैसे भूला ?दानव इतना रे !

सिसक रही उस कली को रौंदा !!
बिना सहारे का यह सौदा !!
हवस में कैसे गिरता है रे !
किस समाज में रहता है रे !

संस्कार यह कहां से आया !
मातु-पिता ने यही सिखाया ?
छि:घिन आती लिखता क्या रे !
किस संरक्षण पलता है रे !

क्यों मानवता इतनी मरती ?
शर्म हया भी तुझसे डरती !
अपनी बेटी देखो तो रे ?
उसके सपने तौलो तो रे !

जन्म से जिनका नहीं सहारा-
अन्ध कूप नारी गृह सारा-
कैसा यह विश्वास बना रे !
बचपन रौंदा आस कहाँ रे !

निर्मम निष्ठुर नारी रक्षक!
आखिर वह भी निकली भक्षक!
यह कैसा अवसाद घना रे !
कौन सुने फरियाद कहाँ रे !

भाग्य हीन यदि वह ना होती-
मातु-पिता की गोद ना खोती-
अपना सुख-दुख कहे कहाँ रे !
रक्षक उसका रहा कहाँ रे !

हाय-हाय कलिकाल यही रे!
पति-पत्नी बेटा मिलकर रे-
करते हैं यह घृणित खेल रे-
मर्यादा की डोर कहाँ रे-

प्रश्न पूछती गर्भ की बेटी-
विकल देखती गोद की बेटी-
कब होंगे सब सभ्य यहाँ रे !
कब होंगे सब सभ्य यहाँ रे !!

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   राकेश कुमार पांडेय
      सादात,गाजीपुर


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