अयोध्या में राम मंदिर और मस्जिद दोनों ही नहीं बनेंगे |
और बस, बस एक यही चाह है कि सब एक हो जाए .... ।
" ये क्या घटिया फैसला है ? ये नहीं चलेगा।
ये क्या मज़ाक किया है हमारे साथ,,,, राम के साथ महोम्मद को कैसे पढ़ सकते हैं? कुरान के साथ गीता का क्या संबंध? ये तो हमारे धर्म-कर्म का मज़ाक बना रहे हैं! इस समस्या को ही खत्म कर देते है... मारो सालों को.... ( ये बात किस धर्म के महापुरुष ने की, नहीं पता) मगर.... कहते ही उस धर्मात्मा के आदेश का पालन हुआ और एका-एक .... मार-काट.... हो-हल्ला .... तलवारें-पिस्तौल के साथ सब सड़क पर थे। बच्चे हो या औरत कोई बख़्शीश नहीं।।। वो किसी धर्म के नहीं थे जो मार रहे थे । मैं बाज़ार में निकली हुई थी क्या जानती थी ऐसा कुछ मिलेगा । दौड़ के एक घर में छुप गई । ना जाने कौन से धर्म का घर था ? धर्म का घर... घर तो इंसानों का होता है मगर इंसान तो शब्द ही नहीं रहा मेरी ज़हन में। खून से लथपथ लाशें, मासूम मरे हुए बच्चे,,,, मेरी आंखें भरी हुई थी खून से या पानी से,,, नहीं जानती ।
घर में घुसी और दरवाज़ा बंद कर दिया,, नहीं सोचा किसी और को भी मदद की ज़रुरत होगी । घर के किसी कमरे से वो बंदा निकला और मुझे इशारे से सोफे पर बैठने को कहा। और पानी लेकर आया।
बाहर वही मंज़र था, लोग न जाने किस गुस्से में भरे बैठे थे। कोई किसी से इतनी नफ़रत कैसे कर सकता है? उन्हें जानवर कहना जानवरों को नीचा दिखाना होता न । वाहिय़ात लोग......!!! उनके लिए कोई औरत, बच्चे, बूढ़े नहीं थे । बस दूसरी मज़हब के लोग थे। हिंदू या मुसलमान, नहीं जानती। किसी नेता ने बीच में आने की ज़हमत ना उठाई। वो छिपे बैठे थे, बड़े-बड़े बंगलों में, सिक्योरिटी के साथ।
दंगों के बीच सिर्फ एक आवाज़ सुनाई दे रही थी। किसकी ....??? किसकी थी ये आवाज़.... शायद... हां.... हां ये तो भारत मां की सिसकियां थी। उनके आंसुओं ने तिरंगे को गीला कर दिया। केसरिया और हरा रंग, सफेद से मिल गए थे। आंसूओं ने रंगों को भी मिला दिया।।। बस हम इंसान ही ना मिल पाए.....
ये मारने वाले ना राम के भक्त थे और ना ही अल्लाह के बंदे..... ये शैतान थे..... हैवान थे ये।
किसी तरह डर में रात गुजरी। सुबह सब शांत दिखा तो बाहर निकली। घर से निकलते हुए उस बंदे से नाम पूछा तो बस... मुस्कुरा दिया वो।। बाहर निकल कर देखा चारों तरफ खून ही खून था , और उसमें तैर रहे थे वो कीड़े.... हमारे दिमाग के कीड़े... इतना भयावह मंजर कि देखते ही आंखें खुल गईं।
आह !!! ये तो सपना था.... मगर.... आज जो सपना है वो कल सच भी होगा.... ये डर ज़हन में रह गया... और निकल गई इस डर के साथ अपने सफ़र की ओर........
मन में थी सोलंकी साहब की कुछ पंक्तियां........
"" ये है सम्मान तिरंगे को सजाया तीन रंगों में
मगर अपमान भी तुमने किया भरपूर दंगों में
कभी थे गोधरा के घर मेरे अरमान के आंसू
कभी गुजरात की आहें, वो अक्षरधाम के आंसू
ये आंसू की इबादत को मेरी आंखों ने गाया है
कभी रोया हूं मैं छिपकर, कभी मुझको रुलाया
जलाने वालों की ताशीर को पहचानता सब है
ज़ुबां से कुछ न बोले पर तिरंगा जानता सब
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जयपुर , राजस्थान