चरित्रहीन थी वो

चरित्रहीन थी वो
चरित्रहीन थी वो
क्योंकि उसने किया था अर्पण
खामोशी से छूआ था उसके स्नेह को
और पल-भर में हो गई वो चरित्रहीन..

पलक झपकना और महसूस करना
उसके प्रेम को अपने अतंरआत्मा में
निश्छल हो कर हर बार की तरह
इस बार भी उसने किया था मग्न होकर 
उसका आलिगंन
और बस हो गई वो चरित्रहीन...

कुमकुम की लालिमा की तरह
सजने लगा उसका चितवन
चमकने लगा उसके ललाट पर
उसका प्रेम
हर पल में सौदर्य मानों 
अपने यौवन की सीमा पार करने लगी
किया उसने अपने सौदर्य में
उसका अंगिकार
और बस हो गई वो चरित्रहीन...

प्रेम को आखिर कब मिला है 
चरित्रवान होने का गौरव?
औरत ने जितनी बार मर्द को चाहा
उतनी बार चरित्रहीन कहलाई...

प्रेम तो खुद ही ईश्वर ने किया
फिर वो क्यूं नही चरित्रहीन?
प्रेम सर्वदा रहा प्रेम
मगर औरत ने किया तो कहलाई
" वो थी चरित्रहीन "
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         स्निग्धा रूद्र 
      धनबाद , इंडिया 

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