हवस की आग में |
खुद के वजूद को समेटे खामोशी ओढ़े ,
एक गंदी नाली के कीड़े सी...
आस-पास भूखे भेड़िए रेंगते है
तन पिपासा की लालसा लिये..!
पेट की आग के आगे परवश हो कर बिछ जाता है तन वहसिओं का बिछौना बनकर,
पर मन की पाक भूमि को कचोटती है ये क्रिया ,
किसको परवाह की दो बोल से नवाज़े
शब्दों में पिरोकर हमदर्दी जताए..!
भाता है खुद को पहने रहना
क्यूँ कोई मेरे अहसास को ओढ़े
दिन में नफ़रत भरी नज़रों के नज़रिये से तौलने वाले,
रात की रंगीनीयों में पैसों का ढ़ेर लगाते है..!
पी कर मेरे हाथों से जाम,ज़हर आँखों से घोलते है
कोई तो देह से परे मेरी पाक रुह को छूता
जो पड़ी है अनछूई नीर सी निर्मल..
जो जीना चाहती है एक उजली ज़िस्त..!
दामन के पिछे धड़कते दिल की ख्वाहिशें जलती है...
तब जब नोचते है बदन से मांस,
बिन अहसास के जेसे कोई सिर्फ़ तन की अग्नि शामक हूँ एेसे..!
पर नहीं जानते मेरे वजूद का वजन की हाँ हूँ मैं तो सुरक्षित है कुछ कच्ची कलियाँ
वरना रोंदते भूखे भेड़िए हवस की आग में ना छोड़ते....!
न....न मत देखो यूँ इस अखरती निगाहों से मुझे जरा सी नर्म निगाह मुझे भी भाती है,
सिमटना देखो मेरा ,
लजाती छुपाती पड़ी हूँ ,दे जो कोई मेरे परवाज़ को उड़ान का हौसला
मैं भी आसमान को बाँहों में समेटना चाहती हूँ,
क्या डाल सकता है कोई मेरे बदन से गंदा कफ़न उखाड़कर दुपट्टा कोई पाक सा ?
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नाम - भावना जीतेन्द्र ठाकर
चूडासान्द्रा, सरजापुर
बेंगलुरु ,कर्नाटक