नये जमाने की होली |
चहूँओर नये जमाने के नये रिवाज छाने लगे हैं !
कहाँ गया पहले वाला स्नेह-सोहाद्र -भाईचारा ,
लगता ज्यों त्याग उसे राग नया अलापने लगे हैं !
पहलें सा त्यौहार का उत्साह नजर आता नही,
लगता खुशियों के अंदाज नये तलाशने लगे है!
बेजान और फीकी सी लगने लगी मुख की हँसी ,
मुखोटे से चेहरे भाव भी अब नकली सजाने लगे हैं !
कहीं नजर नही आती है पहले वाली एकसूत्रता,
मतैक्यता अभाव में होली भी कई जलाने लगे हैं !
क्यों हो गई पत्नोन्मुखी सी पुरातन अखंड परम्परा,
अब संभालते नही बल्कि एक दूजे को गिराने लगे हैं !
छल,दंभ, पाखण्ड का छाया है ये कैसा बोलबाला ?
इसे आचरण में उतार क्यों व्यापार इसका बढाने लगे हैं !
क्यों होने लगा है ऐसा अभाव परोपकारिता का ?
स्वार्थपरायण लोलुप जन पाप क्यों कमाने लगे हैं ?
येन -केन प्रकारेण सबका बस मतलब सिद्ध हो,
फिर जैसे भी हो बाधा को राह से लुढकाने लगे है !
प्रयासरत रहते हैं सुविधाभोगिता "सीमा" पाने में,
अपनी नापसंदगी से तो पुरजोर पीछा छुटाने लगे हैं !
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स्वरचित मौलिक रचना --सीमा लोहिया
झुंझुनू (राजस्थान)