खेती भी कोई करने की चीज है?
(एक किसान के शहरी मजदूर बेटे की कविता)
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पिता के संकोच को कोसते हुए उसने कहा
क्या रक्खा है इस गॉव में
चार बीघे खेती
तीन कमरों का अस्तबल टाइप घर
और तो और
ये खेती भी कोई करने की चीज़ है?
मजूरी करके रूपये लाओ
बीज खरीदो
मिट्टी में दबा दो
रात-दिन मरो ख़पो
कर्ज लेकर खाद-पानी करो
फिर चार महीने इंतज़ार करो
मिलता क्या है ?
दुनिया यहाँ से वहाँ पहुँच गयी
अपनी माँई खेती के चक्कर में ही मरी
न न न
कह रहा हूँ बस बहुत हो गया
बाबूजी.!
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सुनों बेच दो ये सब
ये पेड़, ये जमीन, यह तालाब किस काम के ?
खेती के सिवा और भी काम हैं
उम्र बीत जायेगी दो रूपया बचा पाने में
चलो शहर में दुकान लगाओ
समोसा बेचो
पान लगाओ
सामान उठाओ, मज़दूरी करो, भीख मांगों
कौन देखता है शहर में ?
कुछ भी करो ,कैसे भी रहो
चार पैसे कमाओ भर पेट खाओ
और ई खेती के चक्कर में
जाड़ा-गर्मी-बरसात बस रोओ
कभी ई नही .....कभी उ नहीं... फिर ई नहीं.....
इज्जत के खातिर पड़े हैं गाँव में
बाबूजी ये इज्जत भी कोई चीज़ है क्या?
क्या कीजियेगा इज्जत का
गाँव-गिरांव क्या कहेगा
बाबूजी.... कोई मतलब नहीं किसी को
मरो चाहे जियो
कैसे भी रहो
भाड़ में जाओ
और हाँ ई इज्जत के चक्कर में इसी गाँव में
बड़े-बड़ों की धोती खुल गयी है पिच्छे से
बस आगे मूंदे घूम रहे हैं
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देखो रामशंकर को देखो
सब बेच- बांच के निकल गए पिछले साल
शहर में मौज से रह रहे मेहरार-मनसेरू
यहां दो बिगहा के बावजूद मजूरी करते थे
किशुनुवा के तरे तरे रहती थी मेहरारू
तब जाके फैशन पूरा होता था
खैर तुमको का बतायें
का समझाये
एही माटी का लइके चाटो.....खाओ
पुरखन के नाम का घंटा हिलाओ
बजाओ-हिलाओ-बजाओ
मर जाओ
हम को नहीं हिलाना-बजाना
आज शाम ट्रेन है
ख्याल रखिया
जा रहे
पा लागी।
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भरवारी ,India