जब संस्कार हों खतरे में |
तब खुद चिल्लाना पड़ता है ,
जब संस्कार हों खतरे में
तब कलम उठाना पड़ता है ।
तुम अपने फूहड़ गीतों से
मानवता को झुठलाते हो ,
अपनी बोली को बेच बेच
फिर भी नायक कहलाते हो ।।
सुर की देवी को भूल गए
तब याद दिलाना पड़ता है ,
जब संस्कार हों खतरे में
तब कलम उठाना पड़ता है ।
निर्लज्ज हुए निर्बाध हुए
जाने कितने उन्माद हुए,
तेरे गीतों से नव अंकुर
लाखों जीवन बर्बाद हुए ।।
सात सुरों की थपकी से
तब तुम्हें जगाना पड़ता है ,
जब संस्कार हों खतरे में
तब कलम उठाना पड़ता है ।
लोक लाज सब ताक रखे
तुम आये दिन बाजार बिके ,
फूहड़ता के बाजारों में
अपनी भाषा को बेच चुके ।।
श्लील ,सुगंधित गीतों से
तब जग महकाना पड़ता है ,
जब संस्कार हों खतरे में
तब कलम उठाना पड़ता है ।।
*************************
नीरज पाण्डेय , लखनऊ
आप भी अपनी कविता , कहानियां , लेख लिखकर हमसे शेयर कीजिये !