21वी सदी की कुछ नारीयाँ |
21वी सदी की कुछ नारीयाँ भी क्यूँ मौका देती है खुद के विमर्श में पन्ने भर-भर के हर कोई उनकी बेचारगी लिखते रहें।
एक दायरे में बँधी ज़्यादातर स्त्रीयाँ परिस्थितियों को बदलने के लिए लड़ती ही नहीं.!
इस परिस्थितियों के साथ वो कितनी मेहनत से एडजस्ट कर रही है वो बात सिर्फ़ अपने पति तक पहूँचे उतना ही चाहती है।
फिर उसके पति को परवाह हो या ना हो क्यँ अपनी पीड़ा ज़ाहिर नहीं करती क्यूँ सहने की आदी बन जाती है।
खुद के लिए रिस्पेक्ट खड़ा करना चाहती ही नहीं बस बेचारगी चेहरे पर चढ़ाए फिरती है, घर में अगर कोई परेशानी है तो पति को बताना उचित नहीं समझती, अंदर ही अंदर दु:खी होते सोचती रहती है कोई तो मुझे पूछे की क्या परेशानी है!
अरे आप खुद चिल्ला-चिल्ला कर बोलो ना घुट-घुट कर मरने में कौन सी महानता दिखानी है।
जब पढ़ी लिखी हर बात में काबिल स्त्रीयाँ खराब परिस्थितियों को अपना लेती है तब लगता है ये विमर्श जो सदियों से चला आ रहा है ये उसी के लायक है !
जब कोई तुमको ना समझे तब हथियार मत डाल दो, अपने अस्तित्व को ख़ुमारी से उभारो खुद को स्थापित करो एक सन्मानजनक परिस्थिति के लिए।
देखा है मैंने कुछ औरतों को घर के बुजुर्गो से लेकर बच्चों के हाथों ज़लिल होते हुए, ना बहू के रुप में सन्मान मिलता है, ना पति के मुँह से तारिफ़ के दो शब्द सुनने को मिलते है, ना बच्चे माँ की गरिमा को इज्जत देते है।
तुम कुछ नहीं जानती, तुझे कुछ नहीं आता, या तुम तो रहने ही दो एसे तानों से एक स्त्री को कभी उपर उठने ही नहीं देते ओर वो खुद को तुच्छ समझने लगती है।
कोई ये क्यूँ नहीं समझता की स्त्री घर की नींव है जितनी समझ उसमें है उतना केलीबर किसी में नहीं।
पर अपना मान सन्मान ओर अपनी एक विशेष पहचान बनाना अपने ही हाथों में है एडजस्टमेंट ओर सहनशीलता की मूर्ति मत बनें रहे, दिल के दर्द को वाचा दीजिए !
परिस्थितियों को सबके सामने रखकर हल ढूँढिये ओर अपने लिए एक सुखमय ज़िंदगी की राह चुनिये।
एक बात हर स्त्री को याद रखनी चाहिए की वो है तो मकान घर बनता है, वो है तो पति घर के प्रति निश्चिंत होता है, वो है तो बुज़ुर्गों को दो टाइम समय पर खाना मिलता है, वो है तो बच्चों की हर जरूरतें पूरी होती है।
चार दिन बाहर जाती है स्त्री तो घर की क्या हालत हो जाती है ये बात सब जानते है, तो अपने आप को गृहिणी नहीं घर की रानी समझो ओर खुद में इतना आत्मविश्वास जगाओ की दो बातें फ़ालतू की सुनाने से पहले हर कोई दो बार सोचे।
कह दो अब स्त्री विमर्श में लिखने वालों को की अपने समय ओर कागज़ की फ़िज़ूल खर्ची ना करें, आज की नारी ना लाचार है, ना कमज़ोर है, ना बेचारी है, अपने आप में खुद्दारी की एक मिशाल है।
कब देखने को मिलेगा यातनाओं से उभरी स्त्रीओं से बसा उज्जवल समाज उस दिन में लिखूँगी "स्त्री एक वंदना"
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भावना जीतेन्द्र ठाकर
बेंगलुरु - कर्नाटक